हलधर
सेना
हिमालय
का सुगन्ध अपने बदन पर लेप
स्पर्श
की है गहराई रहस्यलोक की
मैदानों
की नाभि पर सर रख सोता हूँ
तुच्छ
लोग समझते हो हमें?
रोम
रोम में दहकती है बालियों की ओस
स्वप्न
में इकट्ठा कर रखा है धान से भरा खलिहान
हथेली
पर हैं गंगा रावी रेवा भीमा
कान
रोप सुनते हैं हम बिजलियों का गीत।
कंधों
पर उठाए हल गैंती कुदाल
निवारे हैं हम अहल्या का शोक
पोषण पसीने का है ईख गेंहु और
जौ में
आदिम अनन्त मनुष्यता हैं हम।
रोज
डुबाते, रुलाते, बहाते हो हमें
सर
तक जला, काट करते हो टुकड़े हमारे
मौत
से लौट चुके हैं हम इस बार –
खत्म
होगा रावणवध से यह दशहरा।
[कवि
तन्मय वीर रचित मूल बांग्ला कविता का हिन्दी रूपान्तर – विद्युत पाल]
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Chirkuttbd
Original poetry is here
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